जयादित्य स्तोत्रम ( Jayaditya Stotram ) Sri Jayaditya Stotra

जयादित्य स्तोत्रम [ Jayaditya Stotram & Sri Jayaditya Stotra ]

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श्री जयादित्य स्तोत्रम !! sri jayaditya stotra in hindi

न त्वं कृतः केवलसंश्रुतश्च यजुष्येवं व्याहरत्यादिदेव ।

चतुर्विधा भारती दूरदूरं धृष्टः स्तौमि स्वार्थकामः क्षमैतत् ॥ १॥

मार्तण्डसूर्यांशुरविस्तथेन्द्रो भानुर्भगश्चाऽर्यमा स्वर्णरेताः ॥ २॥

दिवाकरो मित्रविष्णुश्च देव! ख्यातस्त्वं वै द्वादशात्मा नमस्ते ।

लोकत्रयं वै तव गर्भगेहं जलाधारः प्रोच्यसे खं समग्रम् ॥ ३॥

नक्षत्रमाला कुसुमाभिमाला तस्मै नमो व्योमलिङ्गाय तुभ्यम् ॥ ४॥

त्वं देवदेवस्त्वमनाथनाथस्त्वं प्राप्यपालः कृपणे कृपालुः ।

त्वं नेत्रनेत्रं जनबुद्धिबुद्धिराकाशकाशो जय जीवजीवः ॥ ५॥

दारिद्र्यदारिद्र्य निधे निधीनाममङ्गलामङ्गल शर्मशर्म ।

रोगप्ररोगः प्रथितः पृथिव्यां चिरं जयाऽऽदित्य! जयाऽऽप्रमेय! ॥ ६॥

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व्याधिग्रस्तं कुष्ठरोगाभिभूतं भग्नघ्राणं शीर्णदेहं विसंज्ञम् ।

माता पिता बान्धवाः सन्त्यजन्ति सर्वैस्त्यक्तं पासि कोऽस्ति त्वदन्यः ॥ ७॥

त्वं मे पिता त्वं जननी त्वमेव त्वं मे गुरुर्बान्धवाश्च त्वमेव ।

त्वं मे धर्मस्त्वञ्च मे मोक्षमार्गो दासस्तुभ्यं त्यज वा रक्ष देव! ॥ ८॥

पापोऽस्मि मूढोऽस्मि महोग्रकर्मा रौद्रोऽस्मि नाऽऽचारनिधानमस्मि ।

तथापि तुभ्यं प्रणिपत्य पादयोर्जयं भक्तानामर्पयं श्रीजयार्क! ॥ ९॥

फलश्रुतिः नारद उवाच- एवं स्तुतो जयादित्यः कमठेन महात्मना ।

स्निग्धगम्भीरयावाचा प्राह तं प्रहसन्निव ॥ १०॥

जयादित्याष्टकमिदं यत्त्वया परिकीर्तितम् ।

अनेनस्तोष्यते यो माम्भुवि तस्य न दुर्लभम् ॥ ११॥

रविवारे विशेषेण मां समभ्यर्च्य यः पठेत् ।

तस्य रोगानशिष्यन्ति दारिद्र्यञ्च न संशयः ॥ १२॥

त्वया च तोषितोवत्सतवदद्मिवरन्त्वमुम् ।

सर्वज्ञो भुवि भूत्वा त्वं ततो मुक्तिमवाप्स्यसि ॥ १३॥

त्वत्पिता स्मृतिकारश्च भविष्यति द्विजार्चितः ।

स्थानस्याऽस्य न नाशश्च कदाचित्प्रभविष्यति ॥ १४॥

न चैतत्स्थानकं वत्स परित्यक्ष्यामि कर्हिचित् ।

एवमुक्त्वा स भगवान्ब्राह्मणैरर्चितः स्तुतः ॥ १५॥

अनुज्ञाप्य द्विजेन्द्रांस्तांस्तत्रैवाऽन्तर्दधे प्रभुः ।

एवं पार्थ समुत्पन्नो जयादित्योऽत्र भूतले ॥ १६॥

आश्विने मासि सम्प्राप्ते रविवारे च सुव्रत ।

आश्विने भानुवारेण यो जयादित्यमर्चयेत् ॥ १७॥

कोटितीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्महत्यां व्यपोहति ।

पूजनाद्रक्तमाल्यैश्च रक्तचन्दनकुङ्कुमैः ॥ १८॥

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लेपनाद्गन्धधूपाद्यैर्नैवेद्यैर्घृतपायसैः ।

ब्रह्मघ्नश्च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः ॥ १९॥

मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकञ्च गच्छति ।

पुत्रदारधनान्यायुः प्राप्य सांसारिकं सुखम् ॥ २०॥

इष्टकामैः समायुक्तः सूर्यलोके चिरं वसेत् ॥ २१॥

सर्वेषु रविवारेषु जयादित्यस्य दर्शनम् ।

कीर्तनं स्मरणं वापि सर्वरोगोपशान्तिकम् ॥ २२॥

अनादिनिधनं देवमव्यक्तं तेजसान्निधिम् ।

ये भक्तास्ते च लीयन्ते सौरस्थाने निरामये ॥ २३॥

सूर्योपरागे सम्प्राप्ते रविकूपे समाहितः ।

स्नानं यः कुरुते पार्थ होमं कुर्यात्प्रयत्नतः ॥ २४॥

दानं चैव यथाशक्त्या जयादित्याग्रतःस्थितः ।

तस्य पुण्यस्य माहात्म्यं श्रुणुष्वैकमनाजय ॥ २५॥

कुरुक्षेत्रेषु यत्पुण्यं प्रभासे पुष्करेषु च ।

वाराणस्याञ्च यत्पुण्यं प्रयागे नैमिषेऽपि वा ।

तत्पुण्यं लभते मर्त्यो जयादित्यप्रसादतः ॥ २६॥

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां प्रथमे माहेश्वरखण्डे कौमारिकाखण्डे जयादित्यमाहात्म्यवर्णननामैकपञ्चाशत्तमोऽध्याये जयादित्याष्टकम् ॥ १॥

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