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देवी कवच || Devi Kavach || Devi Kavacham
चण्डी कवच यानी देवी कवच के रचियता ऋषि मार्कंडेय जी ने की हैं ! चण्डी कवच यानी देवी कवच का वर्णित मार्कंडेय पुराण में देखने को मिल जायेंगा ! चण्डी कवच यानी की देवी कवच आपको दुर्गा सप्तशती में भी देखने को मिल जायेगा ! चण्डी कवच यानी देवी कवच को नियमित रूप से पाठ करने से लम्बी उम्र, सांसारिक और आध्यात्मिक लाभ, रोगों का नाश आदि लाभ होते हैं ! कवच का अर्थ है “सुरक्षा घेरा” ! इसके नाम से जाना जा सकता हैं की चण्डी कवच यानी देवी कवच का पाठ करने से व्यक्ति के बाहरी-आंतरिक अंगों यानी समस्त शरीर की रक्षा होती हैं ! चण्डी कवच आदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें :9667189678 Devi KavachBy Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.
देवी कवच || Devi Kavach || Devi Kavacham
विनियोग :ॐ अस्य श्रीदेव्या: कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवता, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तय:, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजानि, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोग:।
ऋष्यादि-न्यास
ब्रह्मर्षये नम: शिरसि,
अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे,
ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवतायै नम: हृदि,
ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तिभ्यो नम: नाभौ,
ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजेभ्यो नम: लिंगे,
श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोगाय नम: सर्वांगे।
ध्यान
ॐ रक्ताम्बरा रक्तवर्णा, रक्त-सर्वांग-भूषणा ।
रक्तायुधा रक्त-नेत्रा, रक्त-केशाऽति-भीषणा ॥1॥
रक्त-तीक्ष्ण-नखा रक्त-रसना रक्त-दन्तिका ।
पतिं नारीवानुरक्ता, देवी भक्तं भजेज्जनम् ॥2॥
वसुधेव विशाला सा, सुमेरू-युगल-स्तनी ।
दीर्घौ लम्बावति-स्थूलौ, तावतीव मनोहरौ ॥3॥
कर्कशावति-कान्तौ तौ, सर्वानन्द-पयोनिधी ।
भक्तान् सम्पाययेद् देवी, सर्वकामदुघौ स्तनौ ॥4॥
खड्गं पात्रं च मुसलं, लांगलं च बिभर्ति सा ।
आख्याता रक्त-चामुण्डा, देवी योगेश्वरीति च ॥5॥
अनया व्याप्तमखिलं, जगत् स्थावर-जंगमम् ।
इमां य: पूजयेद् भक्तो, स व्याप्नोति चराचरम् ॥6॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ यद् गुह्यं परमं लोके, सर्व-रक्षा-करं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं, तन्मे ब्रूहि पितामह ॥1॥
ब्रह्मोवाच
ॐ अस्ति गुह्य-तमं विप्र सर्व-भूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं, तच्छृणुष्व महामुने ॥2॥
प्रथमं शैल-पुत्रीति, द्वितीयं ब्रह्म-चारिणी ।
तृतीयं चण्ड-घण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥3॥
पंचमं स्कन्द-मातेति, षष्ठं कात्यायनी तथा ।
सप्तमं काल-रात्रीति, महागौरीति चाष्टमम् ॥4॥
नवमं सिद्धि-दात्रीति, नवदुर्गा: प्रकीर्त्तिता: ।
उक्तान्येतानि नामानि, ब्रह्मणैव महात्मना ॥5॥
अग्निना दह्य-मानास्तु, शत्रु-मध्य-गता रणे ।
विषमे दुर्गमे वाऽपि, भयार्ता: शरणं गता ॥6॥
न तेषां जायते किंचिदशुभं रण-संकटे ।
आपदं न च पश्यन्ति, शोक-दु:ख-भयं नहि ॥7॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं, तेषां वृद्धि: प्रजायते ।
प्रेत संस्था तु चामुण्डा, वाराही महिषासना ॥8॥
ऐन्द्री गज-समारूढ़ा, वैष्णवी गरूड़ासना ।
नारसिंही महा-वीर्या, शिव-दूती महाबला ॥9॥
माहेश्वरी वृषारूढ़ा, कौमारी शिखि-वाहना ।
ब्राह्मी हंस-समारूढ़ा, सर्वाभरण-भूषिता ॥10॥
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लक्ष्मी: पद्मासना देवी, पद्म-हस्ता हरिप्रिया ।
श्वेत-रूप-धरा देवी, ईश्वरी वृष वाहना ॥11॥
इत्येता मातर: सर्वा:, सर्व-योग-समन्विता ।
नानाभरण-षोभाढया, नाना-रत्नोप-शोभिता: ॥12॥
श्रेष्ठैष्च मौक्तिकै: सर्वा, दिव्य-हार-प्रलम्बिभि: ।
इन्द्र-नीलैर्महा-नीलै, पद्म-रागै: सुशोभने: ॥13॥
दृष्यन्ते रथमारूढा, देव्य: क्रोध-समाकुला: ।
शंखं चक्रं गदां शक्तिं, हलं च मूषलायुधम् ॥14॥
खेटकं तोमरं चैव, परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं च खड्गं च, शार्गांयुधमनुत्तमम् ॥15॥
दैत्यानां देह नाशाय, भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुधानीत्थं, देवानां च हिताय वै ॥16॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे ! महाघोर पराक्रमे !
महाबले ! महोत्साहे ! महाभय विनाशिनि ॥17॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये ! शत्रूणां भयविर्द्धनि !
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री, आग्नेय्यामग्नि देवता ॥18॥
दक्षिणे चैव वाराही, नैऋत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्, वायव्यां वायुदेवता ॥19॥
उदीच्यां दिशि कौबेरी, ऐशान्यां शूल-धारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्राह्मी च मां रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ॥20॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शव-वाहना ।
जया मामग्रत: पातु, विजया पातु पृष्ठत: ॥21॥
अजिता वाम पार्श्वे तु, दक्षिणे चापराजिता ।
शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥22॥
मालाधरी ललाटे च, भ्रुवोर्मध्ये यशस्विनी ।
नेत्रायोश्चित्र-नेत्रा च, यमघण्टा तु पार्श्वके ॥23॥
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये, श्रोत्रयोर्द्वार-वासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्, कर्ण-मूले च शंकरी ॥24॥
नासिकायां सुगन्धा च, उत्तरौष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृत-कला, जिह्वायां च सरस्वती ॥25॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी, कण्ठ-मध्ये तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्र-घण्टा च, महामाया च तालुके ॥26॥
कामाख्यां चिबुकं रक्षेद्, वाचं मे सर्व-मंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च, पृष्ठ-वंशे धनुर्द्धरी ॥27॥
नील-ग्रीवा बहि:-कण्ठे, नलिकां नल-कूबरी ।
स्कन्धयो: खडि्गनी रक्षेद्, बाहू मे वज्र-धारिणी ॥28॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदिम्बका चांगुलीषु च ।
नखान् सुरेश्वरी रक्षेत्, कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी ॥29॥
स्तनौ रक्षेन्महादेवी, मन:-शोक-विनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी, उदरे शूल-धारिणी ॥30॥
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नाभौ च कामिनी रक्षेद्, गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा, पायुं मे गुह्य-वासिनी ॥31॥
कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे घन-वासिनी ।
जंगे महाबला रक्षेज्जानू माधव नायिका ॥32॥
गुल्फयोर्नारसिंही च, पाद-पृष्ठे च कौशिकी ।
पादांगुली: श्रीधरी च, तलं पाताल-वासिनी ॥33॥
नखान् दंष्ट्रा कराली च, केशांश्वोर्ध्व-केशिनी ।
रोम-कूपानि कौमारी, त्वचं योगेश्वरी तथा ॥34॥
रक्तं मांसं वसां मज्जामस्थि मेदश्च पार्वती ।
अन्त्राणि काल-रात्रि च, पितं च मुकुटेश्वरी ॥35॥
पद्मावती पद्म-कोषे, कक्षे चूडा-मणिस्तथा ।
ज्वाला-मुखी नख-ज्वालामभेद्या सर्व-सन्धिषु ॥36॥
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं, रक्षेन्मे धर्म-धारिणी ॥37॥
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्र-हस्ता तु मे रक्षेत्, प्राणान् कल्याण-शोभना ॥38॥
रसे रूपे च गन्धे च, शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं रजस्तमश्चैव, रक्षेन्नारायणी सदा ॥39॥
आयू रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षन्तु मातर: ।
यश: कीर्तिं च लक्ष्मीं च, सदा रक्षतु वैष्णवी ॥40॥
गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्, पशून् रक्षेच्च चण्डिका ।
पुत्रान् रक्षेन्महा-लक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥41॥
धनं धनेश्वरी रक्षेत्, कौमारी कन्यकां तथा ।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमंकरी तथा ॥42॥
राजद्वारे महा-लक्ष्मी, विजया सर्वत: स्थिता ।
रक्षेन्मे सर्व-गात्राणि, दुर्गा दुर्गाप-हारिणी ॥43॥
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, वर्जितं कवचेन च ।
सर्वं रक्षतु मे देवी, जयन्ती पाप-नाशिनी ॥44॥
फल-श्रुति
सर्वरक्षाकरं पुण्यं, कवचं सर्वदा जपेत् ।
इदं रहस्यं विप्रर्षे ! भक्त्या तव मयोदितम् ॥45॥
देव्यास्तु कवचेनैवमरक्षित-तनु: सुधी: ।
पदमेकं न गच्छेत् तु, यदीच्छेच्छुभमात्मन: ॥46॥
कवचेनावृतो नित्यं, यत्र यत्रैव गच्छति ।
तत्र तत्रार्थ-लाभ: स्याद्, विजय: सार्व-कालिक: ॥47॥
यं यं चिन्तयते कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्नोत्यविकल: पुमान् ॥48॥
निर्भयो जायते मर्त्य:, संग्रामेष्वपराजित: ।
त्रैलोक्ये च भवेत् पूज्य:, कवचेनावृत: पुमान् ॥49॥
इदं तु देव्या: कवचं, देवानामपि दुर्लभम् ।
य: पठेत् प्रयतो नित्यं, त्रि-सन्ध्यं श्रद्धयान्वित: ॥50॥
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देवी वश्या भवेत् तस्य, त्रैलोक्ये चापराजित: ।
जीवेद् वर्ष-शतं साग्रमप-मृत्यु-विवर्जित: ॥51॥
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे, लूता-विस्फोटकादय: ।
स्थावरं जंगमं वापि, कृत्रिमं वापि यद् विषम् ॥52॥
अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भू-तले ।
भूचरा: खेचराश्चैव, कुलजाश्चोपदेशजा: ॥53॥
सहजा: कुलिका नागा, डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरीक्ष-चरा घोरा, डाकिन्यश्च महा-रवा: ॥54॥
ग्रह-भूत-पिशाचाश्च, यक्ष-गन्धर्व-राक्षसा: ।
ब्रह्म-राक्षस-वेताला:, कूष्माण्डा भैरवादय: ॥55॥
नष्यन्ति दर्शनात् तस्य, कवचेनावृता हि य: ।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजो-वृद्धि: परा भवेत् ॥56॥
यशो-वृद्धिर्भवेद् पुंसां, कीर्ति-वृद्धिश्च जायते ।
तस्माज्जपेत् सदा भक्तया, कवचं कामदं मुने ॥57॥
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं, कृत्वा तु कवचं पुर: ।
निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डी-जप-समुद्भवा ॥58॥
यावद् भू-मण्डलं धत्ते ! स-शैल-वन-काननम् ।
तावत् तिष्ठति मेदिन्यां, जप-कर्तुर्हि सन्तति: ॥59॥
देहान्ते परमं स्थानं, यत् सुरैरपि दुर्लभम् ।
सम्प्राप्नोति मनुष्योऽसौ, महा-माया-प्रसादत: ॥60॥
तत्र गच्छति भक्तोऽसौ, पुनरागमनं न हि ।
लभते परमं स्थानं, शिवेन सह मोदते ॐॐॐ ॥61॥
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