कैसे करें देवउठनी एकादशी पर पूजा [ Kaise Kare Dev Uthani Ekadashi Par Puja ] :
कार्तिक मांह की शुक्ल पक्ष की एकादशी ( ग्यारस ) तिथि के दिन देव प्रबोधिन एकादशी मनाई जाती है । इसे देवउठनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता हैं ! यह दिवाली से ग्यारहवे दिन आती हैं ! देवउठनी एकादशी से चार माह पूर्व देव शयनी एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु और अन्य देवता क्षीर सागर में जाकर सो जाते हैं ! इसी कारण से इन चार महीनों तक पूजा पाठ तप व दान सम्बन्धित कार्य होते हैं ! और सब धार्मिक कार्य बंद हो जाते हैं ! इस दिन भगवान श्री विष्णु जी क्षीरसागर से उठते हैं ! और देवउठनी एकादशी के बाद से सभी धार्मिक कार्य शुरू हो जाते हैं ! हम यंहा आपको देव उठनी एकादशी पूजा विधि ( dev uthani ekadashi puja vidhi ) के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे आप भी सही तरीक़े से कर सकोगें ! Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Sharma द्वारा बताये जा रहे कैसे करें देवउठनी एकादशी पर पूजा ( Kaise Kare Dev Uthani Ekadashi Par Puja ) को पढ़कर आप भी बहुत आसन विधि से देवउठनी एकादशी की अपने घर में पूजा कर सकोगें !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! जय श्री मेरे पूज्यनीय माता – पिता जी !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें Mobile & Whats app Number : 7821878500
देव उठनी एकादशी व्रत विधि [ Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi ] :
इस ब्रह्माजी ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाए तब उठकर शौचादि से निवृत्त होकर दंत-धावन आदि कर नदी, तालाब, कुआँ, बावड़ी या घर में ही जैसा संभव हो स्नानादि करें, फिर भगवान की पूजा करके कथा सुनें। फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।
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उस समय भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूँगा। आप मेरी रक्षा कीजिए। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूँगा। तत्पश्चात भक्ति भाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान के आगे नृत्य, गीतादि करना चाहिए। कृपणता त्याग कर बहुत से फूलों, फल, अगर, धूप आदि से भगवान का पूजन करना चाहिए। शंखजल से भगवान को अर्घ्य दें।
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फिर दिन की तेज धूप में विष्णु के चरणों को ढंक दें। देवउठनी एकादशी को रात्रि के समय सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का श्रवण और भजन आदि का गायन करें। घंटा, शंख, मृदंग, नगाड़े और वीणा बजाएं। विविध प्रकार के खेल-कूद, लीला और नाच आदि के साथ इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान को जगाएं : मंत्र :
‘उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्॥’
‘उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।
गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥’
‘शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’
पूजन के लिए भगवान का मन्दिर अथवा सिंहासन को विभिन्न प्रकार के लता पत्र, फल, पुष्प और वंदनबार आदि से सजाएं। आंगन में देवोत्थान का चित्र बनाएं, तत्पश्चात फल, पकवान, सिंघाड़े, गन्ने आदि चढ़ाकर डलिया से ढंक दें तथा दीपक जलाएं। विष्णु पूजा या पंचदेव पूजा विधान अथवा रामार्चनचन्द्रिका आदि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजन तथा दीपक, कपूर आदि से आरती करें। इसके बाद इस मंत्र से पुष्पांजलि अर्पित करें : मंत्र :
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‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्तिदेवाः॥’
पश्चात इस मंत्र से प्रार्थना करें :
‘इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता। त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थ शेषशायिना॥’
इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो। न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जनार्दन॥’
इसका समस्त तीर्थों से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं उनके आगे इंद्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके संतुष्ट होने पर हरि भगवान जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपत्र से भगवान की पूजा करते हैं वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यंत विष्णु लोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।
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तुलसी रोपण का महत्वहे मुनि! रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यंत तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से श्रीहरि का पूजन करते हैं वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं उन्हें मुक्ति मिलती है।
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जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं वे सूर्य-चंद्रमा रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य सफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और जो भगवान पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गायों के दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान की पूजा करते हैं वे सौ गुना पूजा का फल ग्रहण करते हैं।
जो शमी के पत्र से भगवान की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान को चंपा के फूलों से पूजते हैं वे फिर संसार में नहीं आते। केतकी के पुष्प चढ़ाने से करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान का पूजन करने वाले को श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है।
इस प्रकार रात्रि को भगवान का पूजन कर प्रात:काल होने पर नदी पर जाएँ और वहाँ स्नान, जप तथा प्रात:काल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दक्षिणा देकर क्षमायाचना करें। इसके पश्चात भोजन, गौ और दक्षिणा देक गुरु का पूजन कें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरंभ में छोड़ने का नियम किया था, वह ब्राह्मणों को दें। रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा स्वर्ण सहित बैलों का दान करे।
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जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है वह गौदान करे। आँवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दान करना चाहिए। जो फलों को त्यागे वह फलदान करे। तेल छोड़ने से घृत और घृत छोड़ने से दूध, अन्न छोड़ने से चावल का दान किया जाता है।
इसी प्रकार जो मनुष्य भूमि शयन का व्रत लेते हैं उन्हें शैयादान करना चाहिए, साथ ही तुलसी सब सामग्री सहित देना चाहिए। पत्ते पर भोजन करने वाले को सोने का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन कराना चाहिए। बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा, मंदिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए।
एकांत व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों को सिद्ध करने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुअओं की समाप्ति करें अर्थात ग्रहण करने लग जाएँ।
हे राजन! जो बुद्धिमान इस प्रकार चातुर्मास व्रत निर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाए तो व्रत करने वाला कोढ़ी या अंधा हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि राजन जो तुमने पूछा था वह सब मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से गौदान का फल प्राप्त होता है।
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