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श्री राघवेन्द्र विजयः || Sri Raghavendra Vijaya Chapter 1
श्री राघवेन्द्र विजयः स्वामी श्री राघवेन्द्र जी को समर्पित हैं ! यह श्री राघवेन्द्र विजयः महाकवि श्रीमन्नारायण आर्य द्वारा रचियत हैं ! श्री राघवेन्द्र विजयः के यंहा हम आपको 1 से 9 पाठ तक बताने जा रहे हैं ! श्री राघवेन्द्र विजयः के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें :9667189678 Sri Raghavendra Vijaya By Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.
श्री राघवेन्द्र विजयः || Sri Raghavendra Vijaya Chapter 1
प्रथमः सर्गः
श्रीमल्लक्ष्मीनृसिंहस्य श्रियं दिशतु मे नखः।
स्वभक्ताभीष्टदानाय समुपात्तदशाकृतेः॥१॥
वस्तु स्तुतं सुरस्तोमैरस्तु शस्तं मया स्तुतम्।
मस्तुहस्तं प्रस्तुताय श्रुतिमस्तकविश्रुतम्॥२॥
श्रीमदानन्दतीर्थेन्दुभासनं मम मानसे।
आशासे साधुशब्दार्थसरिदीशाभिवृद्धये ॥३॥
श्रीराघवेन्द्ररत्नानां रसनारङ्गनर्तकी।
शब्दाम्बुधिशरज्ज्योत्स्ना शरणं मम शारदा॥४॥
कठिनापि कविश्लाघ्या त्रिविक्रमसरस्वती।
सुवर्णयोगसन्दृश्या वरा वज्रमणिर्यत्था ॥५॥
वाणीपाणितलासक्तवीणारवविडम्बिनी।
नाना प्रबन्धचतुरा भाति नारायणार्यगीः॥६॥
वृन्दारवनमन्दारमकरन्दसहोदरी।
विश्रुता विजयं दद्याद्व्यासतीर्थार्यभारती॥७॥
व्याससूत्रपदार्थोपन्यासमाकर्ण्य मान्यपि।
व्यासराजस्य भजते दासतां को न कोविदः॥८॥
चतुःषष्टिकलाविद्याजुषे विद्वन्महोमुषे।
जयीन्द्रज्योतिषे कुर्यां वन्दनानि यशोजुषे॥९॥
सुधीन्द्रयोगिनं सेवे साधुसात्कृतसम्पदम्।
स गद्यपद्यनिर्माणविद्यायाः परमं पदम्॥१०॥
श्रीमतो राघवेन्द्रस्य नमामि पदपङ्कजे।
कामिताशेषकल्याणकलनाकल्पपादपौ॥११॥
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मुहुः स्मारितवाल्मीकिं पुनस्तं नौमि देशिकम्।
यो विस्तीर्णां रामकथां स्रग्धराभिः समग्रहीत् ॥१२॥
मूकोऽपि यत्प्रसादेन मुकुन्दशयनायते।
राजराजायते रिक्तो राघवेन्द्रं तमाश्रये ॥१३॥
प्रसाद्य नरपञ्चास्यं प्राप्तं वैदुष्यमद्भुतम्।
येन लक्ष्मीनृसिंहेन तातपादं तमाश्रये॥१४॥
प्राप्तान्यनुतिपापौघरसनां पावयाम्यहम्।
गुर्वन्तर्यामिभगवत्स्तुतिगङ्गाम्बुमज्जनात् ॥१५॥
कलये कवनं किञ्चित्कवीनां सहवासतः।
पाटीरगिरिसान्निध्यान्निम्बद्रुरिव सौरभम् ॥१६॥
दृष्टं गुरुप्रसदनमदृष्टञ्च फलं कृतेः।
यथा स्विष्टकृतो ब्रह्मसूत्राऽद्यप्रणवस्य च ॥१७॥
श्रेयांसि श्रयते को वा प्रसादेन विना गुरोः।
कैवल्यमिव गोविन्दकारुण्येन विना जनः ॥१८॥
कविताफलमन्यत्किं गुरूणां गुणवर्णनात्।
अपवर्गं विनाऽन्यत्किं ब्रह्मजिज्ञासने फलम् ॥१९॥
गुरुपादरजस्सङ्गाद्विमलं कवनं मम।
कलुषं वारि कतकरजसा किं न निर्मलम् ॥२०॥
रमणीयापि कविता न हृद्या यद्यसत्परा।
निसर्गमधुरा दुष्टजिह्वासक्तेव शर्करा ॥२१॥
अभव्यमपि मे काव्यं सेव्यं गुरुगुणाश्रयम्।
घनाघनगतं वारि यथा लवणवारिधेः ॥२२॥
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अदोषाप्यगुणेत्युक्तिस्त्यक्तुं युक्ता न मे बुधैः।
पतिव्रताऽगुणेत्येव पत्या किं त्यज्यते प्रिया॥२३॥
अदोषं गुणवद्दृश्यं सर्वैः सर्वार्थदायकम्।
परं ब्रह्मेव यत्काव्यं श्रुत्युक्तं तत्तु दुर्लभम् ॥२४॥
काव्ये गवेषते कश्चिद्दोषमेव गुणं परः।
पिचुमन्दं यथा काकः पिकश्चूतलतां यथा॥२५॥
अस्मद्गुरूणामाधिक्यं कविः को वाऽनुवर्णयेत्।
तथापि तत्प्रसादेन भक्त्या किञ्चिद्वदाम्यहम् ॥२६॥
देवानामिव देवेन्द्रो यो दत्त इव योगिनाम्।
दुग्धाब्धिरिव सिन्धूनां गुरूणामिव पूर्णधीः॥२७॥
तिग्मांशुरिव तेजस्वी शीतांशुरिव शीतलः।
यः सिन्धुरिव गम्भीरो धराधरः इव स्थिरः ॥२८॥
शारदाया दयामेव शास्त्राणां परिशीलने।
विविधग्रन्थकरणे यः सहायं समाश्रितः ॥२९॥
वेदव्रजावनोद्युक्तं विद्यादेवी विलोक्य यम्।
व्यस्मरद्बहुरूपेण तपस्यन्तं समीरणम्॥३०॥
कलिकालकलालूनमूलजालकलालता।
यद्वागमृतसेकेन पुनस्सञ्जातपल्लवा॥३१॥
ललाटरेखादम्भेन बिरुदाक्षरशालिनः।
जयस्तम्भायिता यस्य प्रतिधीराः पराजिताः ॥३२॥
श्रोतॄणां श्रवणान्यासन् यद्वागमृतसेवया।
नित्यानि तदयोग्यत्वान्न तथा हीन्द्रियान्तरम् ॥३३॥
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प्रतीपविद्वत्पाथोधिमथनोत्सवचुञ्चुना।
वादमन्दरशैलेन येनावापि यशोमृतम् ॥३४॥
हिरण्यगर्भमूर्तिस्थपुरुषस्येव यद्यशः।
ततो बहिः प्रसृमरं राजते रौप्यसम्पुटम् ॥३५॥
गुरुराद्यः स्वसिद्धान्तप्रतिष्ठापनपण्डितम्।
श्रुत्वा यं व्यासनिकटे निश्चिन्त इव वर्तते॥३६॥
गोपायति दृढं यस्मिन्नवनीदेवताकुलम्।
शयानः शेषशय्यायां निद्रातीव हरिश्चिरम् ॥३७॥
पदे पदे प्रपन्नानां सम्पदः स्मृतिसम्भवाः।
परीभावप्रदे यस्मिन् शैले शेते नु शङ्करः ॥३८॥
व्याख्यां प्रख्याप्य विख्यातौ सङ्ख्यावत्सु यदीरिताम्।
सुरलोके सुरगुरुः पाताले फणिनां पतिः ॥३९॥
चित्ते चेन्मृदुता शिरीषसदृशे हैयङ्गवीनं शिला,
गाम्भीर्यं यदि यस्य सोऽन्धुरुदधिः शास्त्रेषु चेत्पाण्डिती।
आचार्यो विबुधेशितुः कलयते विद्यार्थितामादरा,
दौदार्यं यदि कल्पपादपमुखाः सम्भावयन्तेऽर्थिताम् ॥४०॥
तस्मान्महामहिम्नेऽस्मै मनः स्पृहयते मम।
तद्गौरवेण मत्काव्यमङ्गीकुर्वन्तु सज्जनाः ॥४१॥
श्रीमत्कश्यपवंशवार्धिशशिनः षड्दर्शनीवल्लभ,
श्रीलक्ष्मीनरसिंहवित्तविदुषः श्रीवेङ्कटाम्बामणौ।
जातेनाऽर्यदयासुधामयगिरा नारायणेनोदित,
काव्ये चारुणि राघवेन्द्रविजये सर्गो विभात्यादिमः ॥४२॥
॥ इति कविकुलतिलकेन श्रीनारयणाचार्येण विरचिते श्रीराघवेन्द्रविजये प्रथमः सर्गः समाप्तः ॥
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