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Prahlada Krutha Narasimha Kavach || प्रह्लाद कृत नृसिंह कवच || Narasimha Kavach
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Prahlada Krutha Narasimha Kavach || प्रह्लाद कृत नृसिंह कवच || Narasimha Kavach
नृसिंह कवचम वक्ष्येऽ प्रह्लादनोदितं पुरा । सर्वरक्षाकरं पुण्यं सर्वोपद्रवनाशनं ॥1॥
सर्वसंपत्करं चैव स्वर्गमोक्षप्रदायकम । ध्यात्वा नृसिंहं देवेशं हेमसिंहासनस्थितं॥2॥
विवृतास्यं त्रिनयनं शरदिंदुसमप्रभं । लक्ष्म्यालिंगितवामांगम विभूतिभिरुपाश्रितं ॥3॥
चतुर्भुजं कोमलांगम स्वर्णकुण्डलशोभितं । ऊरोजशोभितोरस्कं रत्नकेयूरमुद्रितं ॥4॥
तप्तकांचनसंकाशं पीतनिर्मलवासनं । इंद्रादिसुरमौलिस्थस्फुरन्माणिक्यदीप्तिभि: ॥5॥
विराजितपदद्वंद्वं शंखचक्रादिहेतिभि:। गरुत्मता च विनयात स्तूयमानं मुदान्वितं ॥6॥
स्वहृतकमलसंवासम कृत्वा तु कवचम पठेत । नृसिंहो मे शिर: पातु लोकरक्षात्मसंभव:॥7॥
सर्वगोऽपि स्तंभवास: फालं मे रक्षतु ध्वनन । नरसिंहो मे दृशौ पातु सोमसूर्याग्निलोचन: ॥8॥
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शृती मे पातु नरहरिर्मुनिवर्यस्तुतिप्रिय: । नासां मे सिंहनासास्तु मुखं लक्ष्मिमुखप्रिय: ॥9॥
सर्वविद्याधिप: पातु नृसिंहो रसनां मम । वक्त्रं पात्विंदुवदन: सदा प्रह्लादवंदित:॥10॥
नृसिंह: पातु मे कण्ठं स्कंधौ भूभरणांतकृत । दिव्यास्त्रशोभितभुजो नृसिंह: पातु मे भुजौ ॥11॥
करौ मे देववरदो नृसिंह: पातु सर्वत: । हृदयं योगिसाध्यश्च निवासं पातु मे हरि: ॥12॥
मध्यं पातु हिरण्याक्षवक्ष:कुक्षिविदारण: । नाभिं मे पातु नृहरि: स्वनाभिब्रह्मसंस्तुत: ॥13॥
ब्रह्माण्डकोटय: कट्यां यस्यासौ पातु मे कटिं । गुह्यं मे पातु गुह्यानां मंत्राणां गुह्यरुपधृत ॥14॥
ऊरु मनोभव: पातु जानुनी नररूपधृत । जंघे पातु धराभारहर्ता योऽसौ नृकेसरी ॥15॥
सुरराज्यप्रद: पातु पादौ मे नृहरीश्वर: । सहस्रशीर्षा पुरुष: पातु मे सर्वशस्तनुं ॥16॥
महोग्र: पूर्वत: पातु महावीराग्रजोऽग्नित:। महाविष्णुर्दक्षिणे तु महाज्वालस्तु निर्रुतौ ॥17॥
पश्चिमे पातु सर्वेशो दिशि मे सर्वतोमुख: । नृसिंह: पातु वायव्यां सौम्यां भूषणविग्रह: ॥18॥
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ईशान्यां पातु भद्रो मे सर्वमंगलदायक: । संसारभयद: पातु मृत्यूर्मृत्युर्नृकेसरी ॥19॥
इदं नृसिंहकवचं प्रह्लादमुखमंडितं । भक्तिमान्य: पठेन्नित्यं सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥20॥
पुत्रवान धनवान लोके दीर्घायुर्उपजायते । यंयं कामयते कामं तंतं प्रप्नोत्यसंशयं॥21॥
सर्वत्र जयवाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत । भुम्यंतरिक्षदिवानां ग्रहाणां विनिवारणं ॥22॥
वृश्चिकोरगसंभूतविषापहरणं परं । ब्रह्मराक्षसयक्षाणां दूरोत्सारणकारणं ॥23॥
भूर्जे वा तालपत्रे वा कवचं लिखितं शुभं । करमूले धृतं येन सिद्ध्येयु: कर्मसिद्धय: ॥24॥
देवासुरमनुष्येशु स्वं स्वमेव जयं लभेत । एकसंध्यं त्रिसंध्यं वा य: पठेन्नियतो नर: ॥25॥
सर्वमंगलमांगल्यंभुक्तिं मुक्तिं च विंदति । द्वात्रिंशतिसहस्राणि पाठाच्छुद्धात्मभिर्नृभि: ॥26॥
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कवचस्यास्य मंत्रस्य मंत्रसिद्धि: प्रजायते । आनेन मंत्रराजेन कृत्वा भस्माभिमंत्रणम ॥27॥
तिलकं बिभृयाद्यस्तु तस्य गृहभयं हरेत । त्रिवारं जपमानस्तु दत्तं वार्यभिमंत्र्य च ॥28॥
प्राशयेद्यं नरं मंत्रं नृसिंहध्यानमाचरेत । तस्य रोगा: प्रणश्यंति ये च स्यु: कुक्षिसंभवा: ॥29॥
किमत्र बहुनोक्तेन नृसिंहसदृशो भवेत । मनसा चिंतितं यस्तु स तच्चाऽप्नोत्यसंशयं ॥30॥
गर्जंतं गर्जयंतं निजभुजपटलं स्फोटयंतं । हरंतं दीप्यंतं तापयंतं दिवि भुवि दितिजं क्षेपयंतं रसंतं ॥31॥
कृंदंतं रोषयंतं दिशिदिशि सततं संभरंतं हरंतं । विक्षंतं घूर्णयंतं करनिकरशतैर्दिव्यसिंहं नमामि ॥32॥
॥ इति प्रह्लादप्रोक्तं नरसिंहकवचं संपूर्णंम ॥
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