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दुर्गा सप्तशती वैकृतिक रहस्यम् || Durga Saptashati Vaikrutika Rahasyam || Vaikrutika Rahasyam
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दुर्गा सप्तशती वैकृतिक रहस्यम् || Durga Saptashati Vaikrutika Rahasyam || Vaikrutika Rahasyam
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
ऋषिरुवाच
ॐ त्रिगुणा तामसी देवि सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥१॥
योगन्रिदा हरेरुक्ता महाकाली तमोगोणा।
मधुकैटभनाशार्थं यां तुष्टावाम्बुजासनः॥२॥
दशवक्त्रा दशभुजा दश्पादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥३॥
स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरुपापि भूमिप।
रुपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रियः॥४॥
खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्षं निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥५॥
एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्र्चराचरम॥६॥
सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मीः साक्षान्महिषमर्दिनी॥७॥
श्र्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्तमध्या रक्तपादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥८॥
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरुपसौभाग्यशालिनी॥९॥
अष्टदशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्षन्ते दक्षिणाधःकरक्रमात्॥१०॥
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अक्षमाला च कमलं बाणोऽसिः कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशुः शङ्खो घण्टा च पाशकः॥११॥
शक्तिर्दण्डश्र्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलुः।
अलंकृतभुजामेभिरायुध: क मलासनाम्॥१२॥
सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमिमां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भुवेत्॥१३॥
गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥१४॥
दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्ता लाङ्गलं कार्मुकं चसुधाधिप॥१५॥
एषा सम्पुजिता भक्तया सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥१६॥
इत्युक्तानि स्वरुपाणि मूर्तीनां ताव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातुः पृथागासां निशामय॥१७॥
महालक्ष्मीर्यादा पुज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयोः पुज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥१८॥
विरञ्चिः स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्या ह्र्षीकेशः पुरतो देवतात्रयम्॥१९॥
अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्यादशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥२०॥
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अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
यदा चाष्टभुजा पू ज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥२२॥
नवास्याः शक्तयह पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रयाः॥२३॥
अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:।
अष्टादशभुजा चैषा पूज्या महिषमर्दिनी॥२४॥
महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्र्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्र्वरी॥२५॥
महिषान्तकरी येन पुजिता स जगत्प्रभुः।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्तवत्सलाम्॥२६॥
अर्घ्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतैः।
धूपैर्दीपैश्र्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितैः॥२७॥
रुधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बालिमांसादिपूजेयं विप्रवर्ज्या मयेरिता॥
तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥२८॥
सकर्पूरैश्र्च ताम्बूलैर्भक्तिभावसमन्वितैः।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्षं महासुरम्॥२९॥
पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरतः सिंह समग्रं धर्ममीश्र्वरम्॥३०॥
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वाहनं पुजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानसः॥३१॥
ततः कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमैः।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥३२॥
चरितार्धं तु न जपेज्जपञ्छिद्रमवाप्नुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्ज्लिः॥३३॥
क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रितः।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥३४॥
जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हविः।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजय्त्सुसमाहितः॥३५॥
प्रयतः प्राञ्जिलिः प्रह्वः प्रणम्यारोप्य चात्मानि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥३६॥
एवं यः पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्र्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमाप्नुयात्॥३७॥
यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्तवत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्र्वरीम्॥३८॥
तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्र्वरीम्।
यथाक्तेन विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥३९॥
॥ इति वैकृतिकं रहस्यं सम्पूर्णम् ॥
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