श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत || Sri Subrahmanya Bhujanga Stotram || Sri Subramanya Bhujanga Stotram

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श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत || Sri Subrahmanya Bhujanga Stotram || Sri Subramanya Bhujanga Stotram

श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत के रचियता तिरुचिन्दुर के श्री आदी शंकर जी ने की हैं ! श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत में कुल 33 श्लोक हैं ! श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत भगवान सुब्रमण्यम जी का भक्तिमय स्तोत्र है जो भगवान् श्री सुब्रह्मण्य जी से जोड़ता हैं ! श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत आदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें :9667189678 Sri Subrahmanya Bhujanga Stotram By Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.

श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्त्रोत || Sri Subrahmanya Bhujanga Stotram || Sri Subramanya Bhujanga Stotram

सदा बालरूपापि विघ्नाद्रिहन्त्री महादन्तिवक्त्रापि पञ्चास्यमान्या ।

विधीन्द्रादिमृग्या गणेशाभिधा मे विधत्तां श्रियं कापि कल्याणमूर्तिः ॥१॥

न जानामि शब्दं न जानामिचार्थं न जानामि पद्यं न जानामि गद्यम् ।

चिदेका षडास्या हृदि द्योतते मे मुखान्निःसरन्ते गिरश्चापि चित्रम् ॥२॥

मयूराधिरूढं महावाक्यगूढं मनोहारिदेहं महच्चित्तगेहम् ।

महीदेवदेवं महावेदभावं महादेवबालं भजे लोकपालम् ॥३॥

यदा सन्निधानं गता मानवा मे भवाम्भोधिपारं गतास्ते तदैव ।

इति व्यञ्जयन्सिन्धुतीरे य आस्ते तमीडे पवित्रं पराशक्ति पुत्रम् ॥४॥

यथाब्धेस्तरङ्गा लयं यान्ति तुङ्गा-स्थैवापदः सन्निधौ सेवतां मे ।

इतीवोर्मिपङ्गक्तीर्नृणां दर्शयन्तं सदा भावये हृत्सरोजे गुहं तम् ॥५॥

गिरौ मन्निवासे नरा येऽधिरूढा-स्तदा पर्वते राजते तेऽधिरूढाः ।

इतीव ब्रुवन् गन्धशैलाधिरूढः स देवो मुदे मे सदा षण्मुखोऽस्तु ॥६॥

महाम्भोधितीरे महापापचोरे मुनीन्द्रानुकूले सुगन्धाख्यशैले ।

गुहायां वसन्तं स्वभासा लसन्तं जनार्तिं हरन्तं श्रयामो गुहं तम् ॥७॥

लसत्वर्णगेहे नृणां कामदोहे सुमस्तोमसंछन्नमाणिक्यमञ्चे ।

समुद्यत्सहस्रार्कतुल्यप्रकाशं सदा भावये कार्तिकेयं सुरेशम् ॥८॥

रणद्धंसके मञ्जुलेऽत्यन्तशोणे मनोहारिलावण्यपीयूषपूर्णे ।

मनःषट्पदो मे भवत्क्लेशतप्तः सदा मोदतां स्कन्द ते पादपद्मे ॥९॥

सुवर्णाभदिव्याम्बरैर्भासमानां क्वणत्किङ्किणीमेखलाशोभमानाम् ।

लसद्धेमपट्टेन विद्योतमानां कटिं भावये स्कन्द ते दीप्यमानाम् ॥१०॥

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पुलिन्देशकन्याघनाभोगतुङ्ग्-स्तनालिङ्गनासक्तकाशमीररागम् ।

नमस्यामहं तारकरे तवोरः स्वभक्तावने सर्वदा सानुरागम् ॥११॥

विधौकॢप्तदण्डान्स्वलीलाधृताण्डा-न्निरस्तेभशुण्डान्द्विषत्कालदण्डान् ।

हतेन्द्रारिषण्डाञ्जगत्राणशौण्डान् सदा ते प्रचण्डाञ्श्रये बाहुदण्डान् ॥१२॥

सदा शारदाः षण्मृगाङ्का यदि स्युः समुद्यन्त एव स्थिताश्चेत्समन्तात् ।

सदा पूर्णबिम्बाः कलङ्कैश्च हीना-स्तदा त्वन्मुखानां ब्रुवे स्कन्द साम्यम् ॥१३॥

स्फुरन्मन्दहासैः सहंसानि चञ्च-त्कटाक्षावलीभृङ्गसंघोज्ज्वलानि ।

सुधास्यान्दिबिम्बाधराणीशसूनो तवालोकये षण्मुखाम्भोरुहाणि ॥१४॥

विशालेषु कर्णान्तदीर्घेष्वजस्त्रं दयास्यन्दिषु द्वादशस्वीक्षणेषु ।

मयीषत्कटाक्षः सकृत्पातितश्चे-द्भवेते दयाशील का नाम हानिः ॥१५॥

सुताङ्गोद्भवो मेऽसि जीवेति षड्धा जपन्मन्त्रमीशो मुदा चिघ्रते यान् ।

जगद्भारभृद्भ्यो जगन्नाथ तेभ्यः किरीटोज्ज्वलेभ्यो नमो मस्तकेभ्यः ॥१६॥

स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिराम-श्चलत्कुण्डलश्रीलसद्गण्डभागः ।

कटौ पीतवासाः करे चारु शक्तिः पुरस्तान्ममास्तां पुरारेस्तनूजः ॥१७॥

इहायाहि वत्सेति हस्तान्प्रसार्या-ह्वयत्यादराच्छंकरे मातुरङ्कात् ।

समुत्पत्य तातं श्रयन्तं कुमारं हराश्लिष्टगात्रं भजे बालमूर्तिम् ॥१८॥

कुमारेशसूनो गुह स्कन्द सेना-पते शक्तिपाणे मयूराधिरूढ ।

पुलिन्दात्मजाकान्त भक्तार्तिहारिन् प्रभो तारकरे सदा रक्ष मां त्वम् ॥१९॥

प्रशान्तेन्द्रिये नष्टसंज्ञे विचेष्टे कफोद्गारिवक्त्रे भयोत्कम्पिगात्रे ।

प्रयाणोन्मुखे मय्यनाथे तदानीं द्रुतं मे दयालो भवाग्रे गुहं त्वम् ॥२०॥

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कृतान्तस्य दूतेषु चण्डेषु कोपा-द्दह च्छिन्द्धि भिन्द्धीति मां तर्जयत्सु ।

मयूरं समारुह्य मा भैरिति त्वं पुरः शक्तिपाणिर्ममायाहि शीघ्रम् ॥२१॥

प्रणम्यासकृतपादयोस्ते पतित्वा प्रसाद्य प्रभो पार्थयेऽनेकवारम् ।

न वक्तुं क्षमोहं तदानीं कृपाब्धे न कार्यान्तकाले मनागप्युपेक्षा ॥२२॥

सहस्राण्डभोक्ता त्वया शूरनामा हतस्तारकः सिंहवक्त्रश्च दैत्यः ।

ममान्तर्हृदिस्थं मनःक्लेशमेकं न हंसि प्रभो किं करोमि क्व यामि ॥२३॥

अहं सर्वदा दुःखभारावसन्नो भवान् दीनबन्धुस्त्वदन्यं न याचे ।

भवद्भक्तिरोधं सदा क्लृप्तबाधं ममाधिं दुतं नाशयोमासुत त्वम् ॥२४॥

अपस्मारकुष्टक्षयार्शःप्रमेह-ज्वरन्मादिगुल्मादिरोगा महान्तः ।

पिशाचाश्च सर्वे भवत्पत्रभूतिं विलोक्यक्षणात्तरकारे द्रवन्ते ॥२५॥

दृशि स्कन्दमूर्तिः श्रुतौ स्कन्दकीर्ति-र्मुखे मे पवित्रं सदा तच्चरित्रम् ।

करे तस्य कृत्यं वपुस्तस्य भृत्यं गुहे सन्तु लीना ममाशेषभावाः ॥२६॥

मुनीनामुतहो नृणां भक्तिभाजा-मभीष्टप्रदाः सन्ति सर्वत्र देवाः ।

नृणामन्त्यजानामपि स्वार्थदाने गुहाद्देवमन्यं न जाने न जाने ॥२७॥

कलत्रं सुता बन्धुवर्गः पशुर्वा नरो वाथ नारी गृहे ये मदीयाः ।

यजन्तो नमन्तः स्तुवन्तो भवन्तं स्मरन्तश्च ते सन्तु सर्वे कुमार ॥२८॥

मृगाः पक्षिणो दंशका ये च दुष्टा – स्तथा व्याधयो बाधका ये मदङ्गे ।

भवच्छक्तितीक्ष्णाग्रभिन्नाः सुदूरे विनश्यन्तु ते चूर्णितक्रौञ्चशैले ॥२९॥

जनित्री पिता च स्वपुत्रापराधं सहेते च किं देवसेनाधिनाथ ।

अहं चातिबालो भवान् लोकतातः क्षमस्वापराधं समस्तं महेश ॥३०॥

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नमः केकिने शक्तये चापि तुभ्यं नमश्चाग तुभ्यं नमः कुक्कुटाय ।

नमः सिन्धवे सिन्धुदेशाय तुभ्यं पुनः स्कन्दमूर्ते नमस्ते नमोऽस्तु ॥३१॥

जयानन्दभूमञ्जयापारधाम-ञ्जयामोघकीर्ते जयानन्दमूर्ते ।

जयानन्द सिन्धो जयाशेषबन्धो जय त्वं पिता मुक्तिदानेशसूनो ॥३२॥

भुजङ्गाख्यवृत्तेन क्लृप्तं स्तवं यः पठेत्भक्तियुक्तो गुहं संप्रणम्य ।

स पुत्रान्कलत्रं धनं दीर्घमायु-र्लभेत्स्कन्दसायुज्यमन्ते नरः सः ॥३३॥

॥ श्रीसुब्रह्मण्यभुजङ्गं सम्पूर्णम् ॥

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