श्री गोदा स्तुतिः || Sri Goda Stuti || Goda Devi Stuti

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श्री गोदा स्तुतिः || Sri Goda Stuti || Goda Devi Stuti

श्रीमान् वेङ्कटनाथार्यः कवितार्किककेसरी।

वेदान्ताचार्यवर्यो मे सन्निधत्तां सदा हृदि॥

श्री विष्णुचित्तकुलनन्दनकल्पवल्लीं

श्रीरङ्गराजहरिचन्दनयोगदृश्याम्।

साक्षात् क्षमां करुणया कमलामिवान्यां गोदामनन्यशरणः शरणं प्रपद्ये ॥१॥

वैदेशिकः श्रुतिगिरामपि भूयसीनां वर्णेषु माति महिमा न हि मादृशां ते।

इत्थं विदन्तमपि मां सहसैव गोदे मौनन्द्रुहो मुखरयन्ति गुणास्त्वदीयाः ॥२॥

त्वत्प्रेयसः श्रवणयोरमृतायमानां तुल्यां त्वदीय मणिनूपुर शिञ्जितानाम्।

गोदे त्वमेव जननि त्वदभिष्टवार्हां वाचं प्रसन्नमधुरां मम संविधेहि॥३॥

किष्णान्वयेन दधतीं यमुनानुभावं तीर्थैर्यथावदवगाह्य सरस्वतीं ते ।

गोदे विकस्वरधियां भवती कटाक्षात् वाचः स्फुरन्ति मकरन्दमुचः कवीनाम् ॥४॥

अस्मादृशामपकृतौ चिरदीक्षितानां अह्नाय देवि दयते यदसौ मुकुन्दः।

तन्निश्चितं नियमितस्तव मौलिदाम्ना तन्त्रीनिनादमधुरश्च गिरां निगुम्भैः ॥५॥

शोणाऽधरेऽपि कुचयोरपि तुङ्गभद्रा वाचां प्रवाहनिवहेऽपि सरस्वती त्वम्।

अप्राकृतैरपि रसैर्विरजा स्वभावात् गोदाऽपि देवि कमितुर्ननु नर्मदाऽसि॥६॥

वल्मीकतः श्रवणतो वसुधात्मनस्ते जातो बभूव स मुनिः कविसार्वभौमः।

गोदे किमद्भुतमिदं यदमी स्वदन्ते वक्त्रारविन्द मकरन्द निभाः प्रबन्धाः ॥७॥

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भोक्तुं तव प्रियतमं भवतीव गोदे भक्तिं निजां प्रणयभावनया गृणन्तः।

उच्चावचैः विरहसङ्गमजैरुदन्तैः शृङ्गारयन्ति हृदयं गुरवस्त्वदीयाः ॥८॥

मातः समुत्थितवतीमधिविष्णुचित्तं विश्वोपजीव्यममृतं वचसा दुहानां।

तापच्छिदं हिमरुचेरिव मूर्तिमन्यां सन्तः पयोधि दुहितुः सहजां विदुस्त्वाम् ॥९॥

तातस्तु ते मधुभिदः स्तुतिलेश वश्यात् कर्णामृतैः स्तुतिशतैरनवाप्त पूर्वम्।

त्वन्मौलिगन्धसुभगामुपहृत्य मालां लेभे महत्तरपदानुगुणं प्रसादम् ॥१०॥

दिक् दक्षिणापि परिपक्त्रिम पुण्यलभ्यात् सर्वोत्तरा भवति देवि तवावतारात्।

यत्रैव रङ्गपतिना बहुमानपूर्वं निद्रालुनाऽपि नियतं निहिताः कटाक्षाः॥११॥

प्रायेण देवि भवती व्यपदेशयोगात् गोदावरी जगदिदं पयसा पुनीते।

यस्यां समेत्य समयेषु चिरं निवासात् भागीरथी प्रभृतयोऽपि भवन्ति पुण्याः ॥१२॥

नागेशयः सुतनु पक्षिरथः कथं ते जातः स्वयंवरपतिः पुरुषः पुराणः।

एवं विधाः समुचितं प्रणयं भवत्याः सन्दर्शयन्ति परिहासगिरः सखीनाम्॥१३॥

त्वद्भुक्तमाल्यसुरभीकृतचारुमौलेः हित्वा भुजान्तरगतामपि वैजयन्तीम्।

पत्युस्तवेश्वरि मिथः प्रतिघातलोलाः बर्हातपत्ररुचिमारचयन्ति भृङ्गाः ॥१४॥

आमोदवत्यपि सदा हृदयंगमाऽपि रागान्विताऽपि ललिताऽपि गुणोत्तराऽपि।

मौलिस्रजा तव मुकुन्दकिरीटभाजा गोदे भवत्यधरिता खलु वैजयन्ती ॥१५॥

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त्वन्मौलि दामनि विभोः शिरसा गृहीते स्वच्छन्दकल्पित सपीति रसप्रमोदाः।

मञ्जुस्वनाः मधुलिहो विदधुः स्वयं ते स्वायंवरं कमपि मङलतूर्यघोषम् ॥१६॥

विश्वायमान रजसा कमलेन नाभौ वक्षःस्थले च कमला स्तनचन्दनेन।

आमोदितोऽपि निगमैर्विभुरङ्घ्रियुग्मे धत्ते नतेन शिरसा तव मौलिमालाम् ॥१७॥

चूडापदेन परिगृह्य तवोत्तरीयं मालामपि त्वदलकैरधिवास्य दत्ताम्।

प्रायेण रङ्गपतिरेष बिभर्ति गोदे सौभाग्यसंपदभिषेकमहाधिकारम् ॥१८॥

तुङ्गैरकृत्रिमगिरः स्वयमुत्तमाङ्गैः यं सर्वगन्ध इति सादरमुद्वहन्ति।

आमोदमन्यमधिगच्छति मालिकाभिः सोऽपि त्वदीय कुटिलालकवासिताभिः॥१९॥

धन्ये समस्तजगतां पितुरुत्तमाङ्गे त्वन्मौलिमाल्यभर संभरणेन भूयः ।

इन्दीवरस्रजमिवादधति त्वदीया- न्याकेकराणि बहुमान विलोकितानि ॥२०॥

रङ्गेश्वरस्य तव च प्रणयानुबन्धात् अन्योन्यमाल्यपरिवृत्तिमभिष्टुवन्तः।

वाचालयन्ति वसुधे रसिकास्त्रिलोकीं न्यूनाधिकत्व समता विषयैर्विवादैः ॥२१॥

दूर्वादलप्रतिमया तव देहकान्त्या गोरोचना रुचिरया च रुचेन्दिरायाः।

आसीदनुज्झितशिखावलकण्ठशोभं माङ्गल्यदं प्रणमतां मधुवैरिगात्रम् ॥२२॥

अर्च्यं समर्च्य नियमैर्निगमप्रसूनैः नाथं त्वया कमलया च समेयिवांसम्।

मातश्चिरं निरविशन्निजमादिराज्यं मान्या मनुप्रभृतयोऽपि महीक्षीतस्ते॥२३॥

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आर्द्रापराधिनि जनेऽप्यभिरक्षणर्थं रङ्गेश्वरस्य रमया विनिवेद्यमाने।

पार्श्वे परत्र भवती यदि तत्र नासीत् प्रायेण देवि वदनं परिवर्त्तितं स्यात्॥२४॥

गोदे गुणैरपनयन् प्रणतापराधान् भ्रूक्षेप एव तव भोग रसानुकूलः।

कर्मानुबन्धि फलदानरतस्य भर्तुः स्वातन्त्र्य दुर्व्यसन मर्मभिदा निदानम् ॥२५॥

रङ्गे तटिद्गुणवतो रमयैव गोदे कृष्णाम्बुदस्य घटितां कृपया स्ववृष्ट्या।

दौर्गत्यदुर्विषविनाश सुधानदीं त्वां सन्तः प्रपद्य शमयन्त्यचिरेण तापान् ॥२६॥

जातापराधमपि मामनुकम्प्य गोदे गोप्त्री यदि त्वमसि युक्तमिदं भवत्या।

वात्सल्यनिर्भरतया जननी कुमारं स्तन्येन वर्धयति दष्टपयोधराऽपि॥२७॥

शतमखमणिनीला चारु कल्हार हस्ता स्तनभरनमिताङ्गी सान्द्रवात्सल्यसिन्धुः।

अलकविनिहिताभिः स्रग्भिराकृष्टनाथा विलसतु हृदि गोदा विष्णुचितात्मजा नः ॥२८॥

इति विकसितभक्तेरुत्थितां वेङ्कटेशात् बहुगुणरमणीयां वक्ति गोदास्तुतिं यः।

स भवति बहुमान्यः श्रीमतो रङ्गभर्तुः चरणकमलसेवां शाश्वतीमभ्युपैष्यन् ॥२९॥

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