श्रीस्तवः || Sri Stavaha || Stavaha

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श्रीस्तवः || Sri Stavaha

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श्रीस्तवः || Sri Stavaha

श्रीवत्सचिह्नमिश्रेभ्यो नम उक्तिमधीमहे।

यदुक्तयस्त्रयीकण्ठे यान्ति मङ्गलसूत्रताम्॥

स्वस्ति श्रीर्दिशतादशेषजगतां सर्गोपसर्गस्थितीः

स्वर्गं दुर्गतिमापवर्गिकपदं सर्वञ्च कुर्वन् हरिः।

यस्या वीक्ष्य मुखं तदिङ्गितपराधीनो विधत्तेऽखिलं,

क्रिडेयं खलु नान्यथाऽस्य रसदा स्यादैकरस्यात्तया॥१॥

हे श्रीर्देवि समस्तलोकजननीं त्वां स्तोतुमीहामहे,

युक्तां भावय भारतीं प्रगुणय प्रेमप्रधानां धियम्।

भक्तिं भन्दय नन्दयाश्रितमिमं दासं जनं तावकं,

लक्ष्यं लक्ष्मि कटाक्षवीचिविसृतेः ते स्याम चामी वयम् ॥२॥

स्तोत्रं नाम किमामनन्ति कवयो यद्यन्यदीयान् गुणान्,

अन्यत्र त्वसतोऽधिरोप्य फणितिस्सा तर्हि वन्ध्या त्वयि ।

सम्यक्सत्यगुणाभिवर्णनमथो ब्रूयुः कथं तादृशी,

वाग्वाचस्पतिनाऽपि शक्यरचना त्वत्सद्गुणार्णोनिधौ॥३॥

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ये वाचां मनसां च दुर्ग्रहतया ख्याता गुणास्तावकाः,

तानेव प्रति साम्बुजिह्वमुदिताहै मामिका भारती।

हास्यं तत्तु न मन्महे न हि चकोर्येकाऽखिलां चन्द्रिकां,

नालं पातुमिति प्रगृह्य रसनामासीत सत्यां तृषि॥४॥

क्षोदीयानपि दुष्टबुद्धिरपि निःस्नेहोऽप्यनीहोऽपि ते,

कीर्तिं देवि लिहन्नहं न च बिभेम्यज्ञो न जिह्रेमि च।

दुष्येत्सा तु न तावता न हि शुनालीढाऽपि भागीरथी,

दुष्येच्छ्‍वाऽपि न लज्जते न च बिभेत्यार्तिस्तु शाम्येच्छुनः ॥५॥

ऐश्वर्यं महदेव वाल्पमथवा दृश्येत पुंसां हि यत्,

तल्लक्ष्म्याः समुदीक्षणात्तव यतः सार्वत्रिकं वर्तते।

तेनैतेन न विस्मयेमहि जगन्नाथोऽपि नारायणः,

धन्यं मन्यत ईक्षणात्तव यतः स्वात्मानमात्मेश्वरः ॥६॥

ऐश्वर्यं यदशेषपुंसि यदिदं सौन्दर्यलावण्ययोः,

रूपं यच्च हि मङ्गलं किमपि यल्लोके सदित्युच्यते।

तत्सर्वं त्वदधीनमेव यदतः श्रीरित्यभेदेन वा,

यद्वा श्रीमदितीदृशेन वचसा देवि प्रथामश्नुते ॥७॥

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देवि! त्वन्महिमावधिर्न हरिणा नापि त्वया ज्ञायते,

यद्यप्येवमथापि नैव युवयोः सर्वज्ञता हीयते।

यन्नास्त्येव तदज्ञतामनुगुणां सर्वज्ञताया विदुः,

व्योमांभोजमिदन्तया किल विदन् भ्रान्तोऽयमित्युच्यते ॥८॥

लोके वनस्पतिबृहस्पतितारतम्यं, यस्याः प्रसादपरिणाममुदाहरन्ति।

सा भारती भगवती तु यदीयदासी तां देवदेवमहिषीं श्रियमाश्रयामः ॥९॥

यस्याः कटाक्षमृदुवीक्षणदीक्षणेन,

सद्यस्समुल्लसित पल्लवमुल्ललास।

विश्वं विपर्यय समुत्थविपर्ययं प्राक्,

तां देवदेवमहिषीं श्रियमाश्रयामः ॥१०॥

यस्याः कटाक्षवीक्षाक्षणलक्षं लक्षिता महेशास्स्युः।

श्रीरङ्गराजमहिषी सा मामपि वीक्षतां लक्ष्मीः ॥११॥

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॥ इति श्रीस्तवः समाप्तः॥

अर्वाञ्चो यत्पदसरसिजद्वन्द्वमाश्रित्य पूर्वे,

मूर्ध्ना यस्यान्वयमुपगताः देशिका मुक्तिमापुः।

सोऽयं रामानुजमुनिरपि स्वीयमुक्तिं करस्थां,

यत्संबन्धादमनुत कथं वर्ण्यते कूरनाथः ॥

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