गोपिका गीत || Gopika Geetham

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गोपिका गीत || Gopika Geetham

यह गोपिका गीत गर्ग संहिता में से लिया गया हैं ! गोपिका गीत यह भगवान श्री कृष्ण जी के लिए गाया गया हैं ! गोपिका गीतआदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें : 9667189678 Gopika Geetham By Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.

गोपिका गीत || Gopika Geetham

अश्वमेधखण्डः – पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

रासक्रीडा –

गोप्य ऊचुः

अधरबिम्बविडम्बितविद्रुमं मधुरवेणुनिनादविनोदितम् ॥

कमलकोमलनीलमुखाम्बुजं तमपि गोपकुमारमुपास्महे ॥१॥

श्यामलं विपिनकेलिलम्पटं कोमलं कमलपत्रलोचनम् ॥

कामदं व्रजविलासिनीदृशां शीतलं मतिहरं भजामहे ॥२॥

तं विसञ्चलितलोचनाञ्चलं सामिकुड्मलितकोमलाधरम् ॥

वंशवल्गितकराङ्गुलीमुखं वेणुनादरसिकं भजामहे ॥३॥

ईषदङ्कुरितदन्तकुड्मलं भूषणं भुवनमङ्गलश्रियः ॥

घोषसौरभमनोहरं हरेर्वेषमेव मृगयामहे वयम् ॥४॥

अस्तु नित्यमरविन्दलोचनः श्रेयसे हि तु सुरार्चिताकृतिः ॥

यस्य पादसरसीरुहामृतं सेव्यमानमनिशं मुनीश्वरैः ॥५॥

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गोपकै रचितमल्लसङ्गरं सङ्गरे जितविदग्धयौवनम् ॥

चिन्तयामि मनसा सदैव तं दैवतं निखिलयोगिनामपि ॥६॥

उल्लसन्नवपयोदमेव तं फुल्लतामरसलोचनाञ्चलम् ॥

वल्लवीहृदयपश्यतोहरं पल्लवाधरमुपास्महे वयम् ॥७॥

यद्धनञ्जयरथस्य मण्डनं खण्डनं तदपि सञ्चितैनसाम् ॥

जीवनं श्रुतिगिरां सदाऽमलं श्यामलं मनसि मेऽस्तु तन्महः ॥८॥

गोपिकास्तनविलोललोचनप्रान्तलोचनपरम्परावृतम् ॥

बालकेलिरसलोलसंभ्रमं माधवं तमनिशं विभावये ॥९॥

नीलकण्ठकृतपिच्छशेखरं नीलमेघतुलिताङ्गवैभवम् ॥

नीलपङ्कजपलाशलोचनं नीलकुन्तलधरं भजामहे ॥१०॥

घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिःस्वनम् ॥

सारभूतमभिरामसम्पदां धाम तामरसलोचनं भजे ॥११॥

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मोहनं मनसि शार्ङ्गिणं परं निर्गतं किल विहाय मानिनीः ॥

नारदादिमुनिभिश्च सेवितं नन्दगोपतनयं भजामहे ॥१२॥

श्रीहरिस्तु रमणीभिरावृतो यस्तु वै जयति रासमण्डले ॥

राधया सह वने च दुःखितास्तं प्रियं हि मृगयामहे वयम् ॥ १३॥

देवदेव व्रजराजनन्दन देहि दर्शनमलं च नो हरे ॥

सर्वदुःखहरणं च पूर्ववत्संनिरीक्ष्य तेऽशुल्कदासिकाः ॥१४॥

क्षितितलोद्धरणाय दधार यः सकलयज्ञवराहवपुः परम् ॥

दितिसुतं विददार च दंष्ट्रया स तु सदोद्धरणाय क्षमोऽस्तु नः ॥१५॥

मनुमताद्रुचिजो दिविजैः सह वसु दुदोह धरामपि यः पृथुः ॥

श्रुतिमपाद्धृतमत्स्यवपुः परं स शरणं किल नोऽस्त्वशुभक्षणे ॥१६॥

अवहदब्धिमहो गिरिमूर्जितं कमठरूपधरः परमस्तु यः ॥

असुहरंनृहरिः तमदण्डयत्स च हरिः परमं शरणं च नः ॥१७॥

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नृपबलिं छलयन्दलयन्नरीन्मुनिजनाननुगृह्य चचार यः ॥

कुरुपुरं च हलेन विकर्षयन्यदुवरः स गतिर्मम सर्वथा ॥१८॥

व्रजपशून्गिरिराजमथोद्धरन् व्रजपगोपजनं च जुगोप यः ॥

द्रुपदराजसुतां कुरुकश्मलाद्भवतु तच्चरणाब्जरतिश्च नः ॥१९॥

विषमहाग्निमहास्त्रविपद्गणात्सकलपाण्डुसुताः परिरक्षिताः ॥

यदुवरेणपरेण च येन वै भवतु तच्चरणः शरणं च नः ॥२०॥

मालां बर्हिमनोज्ञकुन्तलभरां वन्यप्रसूनोषितां शैलेयागुरुक्लृप्तचित्रतिलकां शश्वन्मनोहारिणीम् ॥

लीलावेणुरवामृतैकरसिकां लावण्यलक्ष्मीमयीं बालां बालतमालनीलवपुषं वन्दामहे देवताम् ॥२१॥

गर्ग उवाच –

इति स्त्रीभिः

रुदन्तीभिः रेवतीरमणानुजः आविर्बभूव चाहूतस्तासां मध्ये च भक्तितः ॥२२॥

|| इति श्रीगर्गसंहितायां हयमेधखण्डे रासक्रीडायां पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ||

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